छत्रपती संभाजी महाराज
छत्रपती संभाजी महाराज (छत्रपती संभाजीराजे शिवाजीराजे भोसले) मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति थे। छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद छत्रपती संभाजीराजे का मराठा साम्राज्य के सिंहासन पर विराजमान हुए।
छत्रपति शिवाजी महाराज और महारानी साईबाई के छत्रपती संभाजीराजे सबसे बड़े पुत्र थे। वह एक शुरवीर योद्धा थे उन्होंने अपने नौ वर्षों के शासनकाल में मुघल बादशाह औरंगजेब, सिद्धि, पोर्तगीज इन सभी के साथ लढाई लडीं। विशाल मोगली सेना से साहस और असाधारण वीरता के साथ मुकाबला करने वाले छत्रपती एक महान साहित्यकार,कवि थे।
उनका जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किलेपर हुआ। उनके शासनकाल में मराठा साम्राज्य पश्चिमी महाराष्ट्र, कोंकण, सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला से नागपुर तक और उत्तर महाराष्ट्र, खानदेश से लेकर जहाँ तक दक्षिण भारत में तंजावुर तक था। उनकी 11 मार्च 1689 को औरंगजेब ने बडी क्रुरता से हत्या कर दी।
छत्रपती संभाजी महाराज बचपन
संभाजी महाराज की माता महारानी सईबाई की मृत्यु तब हो गई जब संभाजी महाराज की आयु सिर्फ दो वर्ष थी। संभाजी महाराज की मां सईबाई फलटन के वांगोजी नाइक निंबालकर की पोती थीं। वह छत्रपती शिवाजी महाराज की पहली पत्नी थीं। सईबाई की तीन बेटियों सकवारबाई, राजूबाई और अंबिकाबाई के बाद संभाजी महाराज का जन्म हुआ । संभाजीराजे ने बहुत कम दिनों तक अपनी माँ के सानिध्य का आनंद लिया। इस समय अफजुल खान और महाराज के बीच संघर्ष समाप्त हो गया था। संभाजी महाराज की माता की मृत्यु होना यह वास्तव में बहुत दुखद था। उसके बाद, पुणे के पास कपूरहोल गांव की एक महिला धाराऊ उनकी पालक मां बन गईं। संभाजी महाराज की देखभाल उनकी दादी राजमाता जीजाबाई करती थीं।
छत्रपती शिवाजी महाराज ने संभाजीराजे को बड़े ही लाड़-प्यार से पाला था। उन्हें नागरिक और सैन्य प्रशासन की शिक्षा दी गई। राजनीति का असली पाठ पढ़ाया गया। इस आशय से कि उनके बाद उत्तराधिकारी के रूप में राज्य का भार उन्हे सौंपा जायेगा। उनकी सौतेली माँ, पुतलाबाई भी उन पर बहुत स्नेह करती थीं। लेकिन उनकी सौतेली माँ सोयराबाई ने संभाजी महाराज के राजनीतिक करियर में हस्तक्षेप करने की कोशिश की।
लेकिन जीजाबाई ने अपने प्यारे पोते की देखभाल की और उसे एक महाराजा की तरह शिक्षित किया। जब तक राजमाता जीजाबाई थी तब तक उन्हें अपनी मां की ज्यादा याद नहीं आती थी। संभाजी महाराज और येसुबाई इनका बचपन मेही विवाह हुआ।
छत्रपती संभाजी महाराज आग्रा भेंट
उस समय राजनीति में भागीदारी ही राजनीति की शिक्षा थी। जब महाराज आगरा गये तो संभाजी को भी अपने साथ ले गये। उस समय उन्हें पाँच हज़ार का मनसब मिला। वह कई भाषाओं के विद्वान और बहुत चतुर राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने राजनीति की बारीकियों को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। छत्रपती शिवाजी महाराज उन्हें यह सोचकर आगरा की यात्रा पर अपने साथ ले गए कि अगर उन्हें कम उम्र में ही मुगल दरबार के मामलों और राजनीति के बारे में पता चल गया, तो यह भविष्य में उनके लिए उपयोगी होगा। संभाजी राजे उस समय 9 वर्ष केछत्रपती शिवाजी महाराज के कैद से भागने के बाद स्वराज्य की भागदौड़ का भार संभाजी राजाओं पर न पड़े, इसलिए उन्हें कुछ समय के लिए सुरक्षित स्थान पर रखना आवश्यक था। इसलिए शिवाजी महाराज ने उन्हें मथुरा में मोरोपंत पेशवा के बहनोई के घर पर रखा। मुगल सैनिकों को संभाजी राजा का पीछा करने से रोकने के लिए शिवाजी महाराज ने संभाजी राजा की मृत्यु की अफवाह फैला दी। महाराष्ट्र पहुँचने के कुछ समय बाद संभाजी महाराज सुरक्षित स्वराज्य पहुँच गये। उन्होंने राजनीतिक कौशल प्राप्त करना शुरू कर दिया, दो बार मोगली दरबार का दौरा किया और दुनिया का वास्तविक अनुभव प्राप्त किया।
युवराज छत्रपती संभाजी राजे
एक राजकुमार होने के नाते, वह कम उम्र से ही युद्धक्षेत्र अभियानों और राजनीतिक युद्धाभ्यास से अवगत हो गए थे। युद्धकला के शिक्षा के साथ-साथ, शिवाजी महाराज ने केशवपंडित जैसे विद्वानों की देखरेख में संभाजी राजेको पारंपरिक शिक्षा और साहित्य का अध्ययन भी करवाया था।
इसके साथ ही संभाजी महाराज ने तीन पुस्तकें नायिकाभेद, नखशिखा, सातशतक यह लिखीं। छत्रपती शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक करने आऐ काशी के पंडित गागाभट्ट ने ‘समयनय’ नामक पुस्तक लिखी और इसे संभाजी महाराज को अर्पित की। संभाजी महाराज ने चौदह वर्ष की उम्र में संस्कृत ग्रंथ ‘बुधभुषण’ लिखा था। इस पुस्तक में ‘बुधभुषण’ की भाषा अत्यंत सुन्दर एवं आलंकारिक है। संभाजी महाराज भी संस्कृत विद्या के विद्वान बनते जा रहे थे। संभाजी महाराज को सभी शास्त्र आ रहे थे, संगीत की समझ थी, सभी पुराण महापुराण ज्ञात थे और संपूर्ण धनुर्वेद ज्ञान था। वह धर्मशास्त्र को समझते थे और धर्म का निर्णय कर सकते थे।
1674 में जब शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ, तब तक संभाजी राजे राजनीति और युद्धक्षेत्र की रणनीति की बारीकियों में पारंगत हो गए थे। अपने विनम्र स्वभाव से उन्होंने राज्याभिषेक के लिए रायगड आये प्रतिनिधियों का आतिथ्य सत्कार किया। छत्रपती शिवाजी महाराज स्वराज्य की राजनीति और युद्ध के मैदान में शामिल थे। संभाजी इस समय पन्द्रह वर्ष के थे। महाराजा ने उन्हें कार्यभार संभालने और स्वतंत्र लेखक के रूप में भी नियुक्त किया।
समय-समय पर उन्हें एक बड़ी इकाई का नेतृत्व करने के लिए कहा जाता था, ताकि उन्हें सैन्य प्रशिक्षण भी मिले। इस मामले में भी संभाजी पूरी तरह से अपने पिता के पक्षधर थे। संभाजी महाराज ने अपने सैनिकों का दिल पूरी तरह से जीत लिया था। संभाजी महाराज की कदकाठी मजबूत थी और वह दिखने में बहुत सुन्दर थे। उनके सैनिक अपने छोटे छत्रपती की आज्ञा मानकर खुश थे। वे उन्हें महाराजा के रूप में सम्मान देते थे। थोड़े ही समय में युद्ध के मैदान में भी, संभाजी महाराज की प्रशंसा होने लगी। न केवल सैन्य, न केवल नागरिक बल्कि दोनों संभाजी महाराज की प्रसंशा करते थे।
छत्रपती शिवाजी महाराज ने शुरू से ही संभाजी महाराज को इसी नजर से देखा और उनके लिए तैयारी भी उसी तरह की। अतः राज्याभिषेक के समय उन्होंने संभाजी महाराज को युवा-राजपद का सम्मान दिया। संभाजी उस समय युवराज के रूप में सिंहासन की सीढ़ी पर बैठे थे।
लेकिन राज्याभिषेक के तुरंत बाद राजमाता जीजाबाई की मृत्यु हो गई और सब कुछ बदल गया। जीजाबाई की मृत्यु से महाराजा के जीवन में एक प्रकार का संकट आ गया। संभाजी महाराज और छत्रपती शिवाजी महाराज के अनुभवी दरबारियों के बीच अक्सर मतभेद रहते थे। संभाजी महाराज अमात्य अन्नाजी दत्त के भ्रष्ट प्रशासन के सख्त खिलाफ थे। छत्रपती शिवाजी महाराज अक्सर अन्नाजी के भ्रष्ट प्रशासन को नजरअंदाज कर देते थे क्योंकि वह एक अनुभवी और कुशल प्रशासक थे। लेकिन संभाजी महाराज के लिए इसे स्वीकार करना कठिन था।
अन्नाजी दत्तो और अन्य दिग्गज मंत्री संभाजी महाराज के खिलाफ गए। कुछ दरबारी संभाजी महाराज के खिलाफ बुरा भला कहने लगे और शडयंत्र रचने लगे, ऐसा अन्नाजी दत्तो के कहने पर ही किया गया था। उनके विरोध के कारण वे छत्रपती शिवाजी महाराज के साथ दक्षिण भारत के अभियान पर नहीं जा सके। साथ ही, अष्टप्रधान मंडल के कुछ मंत्रियों ने छत्रपती शिवाजी महाराज की अनुपस्थिति में संभाजी महाराज के आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया। इसलिए छत्रपती शिवाजी महाराज ने संभाजी महाराज को रायगड राजधानी से दुर कोंकण के श्रृंगारपुर को भेज दिया। दक्षिण भारत के अभियान से लौटने के कुछ दिन बाद छत्रपती शिवाजी महाराज की मृत्यु हो गई।
छत्रपती संभाजी महाराज राज्याभिषेक
छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य के सेनापती हंबीरराव मोहिते पाटील ने संभाजी महाराज का साथ दिया और संभाजी महाराज ने स्वराज्य की बागडोर संभाली। छत्रपति संभाजी महाराज का राज्याभिषेक 16 जनवरी 1681 को रायगढ़ किले में हुआ था। उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया था कि शिवाजी महाराज के युग की व्यवस्था वैसी ही रहेगी।
संभाजी महाराज की राजमुद्रा
श्री शंभो: शिवजातस्य मुद्राद्यौरिव राजते |
यदं कसेविनी लेखा वतर्ते कस्यनोपरि ||
अर्थ: छत्रपति शिवराय के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज की यह राजमुद्रा मानो आकाश के समान असीम, स्वर्गीय तेज से दमक रही है। इस राजमुद्रा के तत्वावधान में प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक प्राणी महाराज की छत्रछाया में होगा। छत्रपति की इस राजमुद्रा से बेहतर कोई नहीं।
संभाजी महाराज का प्रधान मंडल(मंत्री मंडल)
सिंहासनाधीश्वर श्रीमंत छत्रपती संभाजीराजे शिवाजीराजे भोसले (सर्वोच्च प्राधिकारी)
श्री सखी राज्ञी जयति छत्रपती येसुबाई संभाजीराजे भोसले (संभाजीराजे की अनुपस्थिति में राजशाही के प्रशासक)
- सरसेनापती – हम्बीरराव मोहिते
- पेशवा – नीला मोरेश्वर पिंगले
- मुख्य न्यायाधीश – प्रह्लाद निराजी
- दानाध्यक्ष – मोरेश्वर पंडितराव
- चिटनीस – बालाजी आवाजी
- सुरनीस – आबाजी सोनदेव
- डबीर – जनार्दनपंत
- मुजुमदार – अन्नाजी दत्तो
- वाकेनवीस – दत्तजीपंत
- छान्दोगमत्य – कवि कलश
छत्रपती संभाजी महाराज और औरंगजेब
औरंगजेब की सेना मराठों से पांच गुना थी और औरंगजेब का साम्राज्य संभाजी महाराज के स्वराज से कम से कम 15 गुना बड़ा था। औरंगजेब की सेना उस समय दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेनाओं में से एक थी। फिर भी मराठा संभाजी महाराज के नेतृत्व में बहादुरी से लड़े। औरंगजेब के सेनापतियों को उम्मीद थी कि किला कुछ ही घंटों में आत्मसमर्पण कर देगा। लेकिन मराठों ने इतना उग्र प्रतिरोध किया कि उन्हें उस किले को जीतने के लिए साढ़े छह साल तक लड़ना पड़ा।
छत्रपती संभाजी महाराज ने गोवा के पुर्तगालियों, जंजीरा के सिद्दी और मैसूर के चिक्कादेवराय इन दुश्मनों को इतना कड़ा सबक सिखाया कि वे संभाजी महाराजा के विरुद्ध औरंगजेब की सहायता करने का साहस नहीं किया। न ही उनमें से कोई उनके ख़िलाफ़ हो सका। संभाजी महाराज के नेतृत्व में, मराठों ने सभी दुश्मनों के खिलाफ अकेले लड़ाई लड़ी।
छत्रपती संभाजी महाराज का अतुलनीय बलिदान
3 फरवरी, 1689 छत्रपति संभाजी राजे और कवि कलश संगमेश्वर, रत्नागिरी में दुर्घटनावश पकड़ें गये। छत्रपती संभाजी महाराज ने अपने महत्वपूर्ण सरदारों को एक बैठक के लिए कोंकण के संगमेश्वर में बुलाया था। जब संभाजी महाराज रायगढ़ के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तब औरंगजेब के सरदार मुकर्रबखान ने महाराजा के करीबी लोगों की मदद से संगमेश्वर पर बहुत सावधानी से हमला किया। मराठों और शत्रु सेना के बीच झड़प हुई। संभाजी महाराज और मुघलों के बीच युद्ध हुआ लेकिन अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, मराठा दुश्मन के हमले को विफल नहीं कर सके। दुश्मन ने संभाजी महाराजा और उनके साथ मौजूद कवि कलश को जिंदा पकड़ लिया।
संभाजी महाराज को पकडने के बाद उन्हें एक गंदे ऊँट पर उल्टा बिठाया गया, विदूषक के कपड़े पहनाए गए, गले मे घास बांधकर, उनकी कंधे के उपर और हाथों के उपर लकड़ी का लठ्ठा बांधकर उनका एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस के दौरान मुगल सेना ने उन्हें बेरहमी से भालों से छलनी करती थी। छत्रपति संभाजी महाराज को अपमानजनक तरीके से नंगे अंगों को जंजीरों में जकड़ कर रखा गया नींद सीधी होकर लेने को देते थे। बासी और खराब गुणवत्ता वाला खाना परोस देते थे, इसलिए उन्होंने आगे का खाना छोड़ खाना छोड़ दिया।
इसके बाद उन्हें औरंगजेब के सामने लाया गया। छत्रपती संभाजी महाराज के सामने औरंगजेब ने दो शर्तों को रखा की पहली मराठा साम्राज्य का खजाना कहापर रखा है और दूसरी यह की मुघल साम्राज्य के कौन कौनसे सरदार उनके साथ मिले हुए हैं उनके नाम पुछे। संभाजी महाराज औरंगजेब की शर्तों को मानने से साफ इंनकार कर दिया। संभाजी महाराज औरंगजेब के सामने झुके नहीं।
अंततः औरंगजेब ने दोनों को क्रूर यातनाएं देकर, नारकीय यातना देकर मार डालने का आदेश दिया गया। छत्रपति संभाजी राजे को तीन लोगों ने बेरहमी से खींचकर उनके जबड़े खोलकर, उनकी जीभ को चिमटे से पकड़कर, जोर से फुफकारकर और तेज कैंची से उनकी जड़ों को काटकर बाहर निकाला। इसके बाद उनकी तेजस्वी आंखों में गरम सलीया डाल दी गई और पुतलियां निकाल ली गईं।
छत्रपति सम्भाजी महाराज का ये बलिदान और उनको पीडा देने का काम मुगलों ने औरंगज़ेब के कहने पर एक महिने तक चालू रखा और उनको महिनाभर तड़पाते रहे और आखिर में उनके शरीर के पैरों से लेकर गर्दन तक तुकडे तुकडे करके मार डाला। उनके शरीर के टुकड़ों को नदी के किनारे फेंक दिया। उनके मस्तक को भाकी नौक मे डालकर उसका जूलुस निकलवाया।
ऐसे महान छत्रपती संभाजी महाराज को शतशः नमन।
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